सद्गति कहानी का सारांश : Sadgati Kahani Saransh Story

प्रिय पाठकों, नमस्कार
आज के इस लेख में हमलोग मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित "सद्गति कहानी का सारांश : Sadgati Kahani Saransh Story" को पढ़ेंगे। प्रेमचंद ने अपनी कहानी 'सद्गति' के माध्यम से समाज की वास्तविकताओं को उजागर किया है। उनके समय में समाज में जाति-पाति और वर्गों का गहरा भेदभाव था। ब्राह्मणों को आदर-सत्कार मिलता था, लेकिन यह सम्मान केवल बाहरी दिखावे तक सीमित था। आंतरिक रूप से, धर्म और संस्कारों के नाम पर निम्न जातियों का शोषण किया जाता था। इस कहानी के माध्यम से, प्रेमचंद ने समाज की कुरीतियों को उजागर किया और उस वर्ग पर प्रकाश डाला जो सामाजिक हाशिए पर जी रहा था।

सद्गति कहानी का सारांश : Sadgati Kahani Saransh Story


पाठ का नाम - सद्गति  
पाठ का लेखक - मुंशी प्रेमचंद  
पाठ की विधा - कहानी

सद्गति कहानी के पात्र 

 इस कहानी के कुछ मुख्य पात्र निम्नलिखित हैं - 

  • दुखी -
    एक दलित (अछूत) मज़दूर जो ग़रीबी और समाजिक भेदभाव का सामना कर रहा है। 

  • झुरिया - 
    झुरिया दुखी की पत्नी है, जो उनके संघर्ष और कठिनाइयों में उनका साथ देती है।  

  • पंडित घासीराम -  
    एक ब्राह्मण पुजारी, जो उच्च जाति का प्रतिनिधित्व करता है और शोषणकारी मानसिकता का प्रतीक है।

  • गोंड -
    गोंड एक महत्वपूर्ण सहायक पात्र है। वह निम्न जाति के समुदाय से आता है, विशेष रूप से चमार जाति का प्रतिनिधित्व करता है। गोंड का काम समाज में मृत पशुओं को उठाने और उनकी खाल निकालने का होता है, और इसी काम के लिए उसे कहानी में पेश किया गया है। 

सद्गति कहानी का सारांश

दुखी चमार द्वार पर झाड़ू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया, घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने काम से फुर्सत पा चुके, तो चमारिन ने कहा - जाके पंडित बाबा को बुला आओ ना, हम तबतक कहीं से खटिया मांग के आते हैं। दुखी चमार अपने पुत्री के शादी के साइत-सगुन जानने के लिए पंडित घासीराम के घर जाता है। पंडित घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे, नींद खुलते ही ईशोपासन में लग जाते। घासीराम जैसे ही पूजन-गृह से निकले, तो देखा कि दुखी चमार घास का एक गठ्ठा लिये बैठा है। 
घासी - क्यों रे दुखिया, कहाँ आया ?
दुखी - मालिक, बिटिया की सगाई कर रहा हूँ उसी का दिन जानने आया हूँ। 
घासी - आज मुझे छुट्टी नहीं है 
दुखी - ऐसा न कहिए महराज ! सब सामान सुव्यवस्थित कर आया हूँ। बस आपके जाने का देर है। यह घास कहाँ रख दूँ ?
घासी - इस गाय के सामने रख दे और झाड़ू लेकर पूरा द्वार साफ़ कर दे। यह बैठक भी गोबर से लीप दे कई दिनों से लीपा नहीं गया। तबतक मैं भोजन करके आराम करता हूँ फिर चलूँगा। और हाँ, यह लकड़ी भी चीड़ देना
। खलिहान में चार खाँची भूसा पड़ा है। उसे भी उठा लाना और भुसौली में रख देना।
बेचारा दुखी भूखे प्यासे हुक़्म की तामील करने लगा। उन्होंने भूख को दबाकर द्वार पर झाड़ू लगाई, बैठक को गोबर से लीपा और लकड़ी फाड़ने लगा। दुखी तो एक निर्धन दलित था जो घास छीलकर बाज़ार ले जाता था। लकड़ी चीरने का उसे अभ्यास न था। वह हांफता था, पसीना में तर था, पांव कांप रहे थे, कमर सीधी न होती थी, आँखों टेल अँधेरा हो रहा था, सिर में चक्कर आ रहे थे फिर भी अपना काम किये जाता था। उसने सोचा की अगर चिलम तम्बाकू मिल जाये तो थोड़ा जान आ जाए। सहसा उसे याद आया कि गांव में एक गोंड रहता है। वहां जाकर उसे चिलम और तम्बाकू तो मिल गया पर आग न मिला। 
दुखी पंडितजी के घर में बरोठे के द्वार पर जाकर बोला - मालिक थोड़ा आग मिल जाता तो चिलम पी लें। पंडिताइन इसपर खूब भरकी और न जाने क्या-क्या नीच शब्द सुनाई उस बेचारे दुखी को और अंत में एक आग का टुकड़ा उसके ओर फेंकी जो सीधा दुखी के सिर पे गिरा। 

बेचारा चिलम पीकर भूख प्यास को दबाकर फिर से लकड़ी फाड़ने लगा परन्तु बहुत मेहनत के बावजूद भी लकड़ी हिलने का नाम नहीं ले रहा था फिर उसने सोचा कि कह दूंगा - बाबा, आज तो लकड़ी न फटी कल आके फाड़ दूंगा। तबतक भूसा ही उठा लाता हूँ। भूसा इतना ज़्यादा था कि बेचारा दुखी धोते धोते थक गया और झौवे पर सिर रख सो गया। पंडित जी ने जैसे ही द्वार पे दुखी को सोते देखा उसका तो मानो ख़ून खौल गया। घासी ने चिल्लाकर बोला - अरे दुखिया, तू सो रहा है ? लकड़ी तो अभी ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। इतनी देर तू करता क्या रहा ? मुट्ठी भर भूसा ढोने में संझा कर दी ! उस पर सो रहा है। उठा ले कुल्हाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल। दुखी ने फिर कुल्हाड़ी उठाई और मारने लगा हिम्मत करके ये सोच के कि कहीं पंडित जी साइत न बिगड़ दे। वह अपने होश में नहीं था। आधे घंटे तक लगातार जोड़-जोड़ से हाथ चलता रहा, लकड़ी बीच से फट गई - और दुखी के हाथ से कुल्हाड़ी छूटकर गिर पड़ी। इसके साथ वह भी चक्कर खाकर गिर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका हुआ शरीर जवाब दे गया। देखते ही देखते क्षण भर में यह ख़बर पुरे गांव में तेज़ी से फैल गया। लाश उठाने कोई आगे न आ रहा था। गांव में एक ही घर गोंड का था उसने पुरे चमारों को कह दिया था कि लाश उठाने मत जाना पुलिस आएगी तहकीकात करने फिर सारी पण्डितगिरि निकलेगी। अंत में काफ़ी मिन्नतें करने के बाद जब कोई नहीं आया लाश फेकने तो पंडितजी ने ख़ुद ही रस्सी निकाली और उसका फन्दा बनाकर मुरदे के पैर में डाला और फन्दे को खींचकर कस दिया। अभी कुछ-कुछ धुँधलका था। पंडितजी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शुरू किया और गाँव के बाहर घसीट ले गये। वहाँ से आकर तुरन्त स्नान किया, दुर्गापाठ पढ़ा और घर में गंगाजल छिड़का। उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे। यही जीवन-पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।

इन्हें भी पढ़ें - 
(i) ईदगाह 
(ii) बूढ़ी काकी
(iii) यही सच है  


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