यही सच है कहानी का सारांश : Yahi Sach Hai Kahani Ka Saransh

प्रिय पाठकों, नमस्कार 

आज के इस लेख में हमलोग मन्नू भंडारी द्वारा रचित "यही सच है कहानी का सारांश : Yahi Sach Hai Kahani Ka Saransh" पढ़ेंगे। यही सच है: एक कहानी जो प्रेम, उलझन और आत्मचिंतन को दर्शाती है। यह कहानी प्रसिद्ध हिंदी लेखिका मन्नू भंडारी की उत्कृष्ट कृतियों में से एक है। मन्नू भंडारी की रचनाएँ, जिनका अनुवाद कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में हुआ है, हमेशा से ही समाज और व्यक्ति की जटिलताओं को उजागर करने में सक्षम रही हैं। 'यही सच है' संग्रह की आठ कहानियों में से एक है, जिसने अपने समय में गहरा प्रभाव छोड़ा है। इस कहानी को एक फ़िल्म 'रजनीगंधा' के रूप में भी पर्दे पर लाया गया है। बासु चटर्जी के उत्कृष्ट निर्देशन में मन्नू भंडारी की कहानी 'यही सच है' पर आधारित फ़िल्म का नाम 'रजनीगंधा' (1974) था। यह कहानी एक महिला, दीपा की मानसिक उलझनों और उसकी प्रेम जीवन की जटिलताओं को अनावृत करती है। आइए इस ब्लॉग में हम इस कहानी का विस्तृत सारांश और उसके विषय में चर्चा करें।

यही सच है कहानी का सारांश : Yahi Sach Hai Kahani Ka Saransh


पाठ का नाम - यही सच है  
पाठ का लेखक - मन्नू भंडारी 
पाठ की विधा - कहानी

यही सच है कहानी के पात्र 

 इस कहानी के कुछ मुख्य पात्र निम्नलिखित हैं - 

  • दीपा -
    दीपा इस कहानी की मुख्य पात्र है, जो अपनी भावनाओं और प्रेम के बीच उलझन में फंसी हुई है। वह दो युवकों संजय और निशीथ के बीच फंसी हुई है और जानने की कोशिश कर रही है कि आख़िर उसका सच्चा प्यार कौन है?

  • संजय - 
    संजय दीपा का एक प्रेमी है, जो उसे बहुत पसंद करता है और उसके प्रति समर्पित है। वह कहानी में एक स्थिर और विश्वसनीय व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत होता है, जो दीपा को समझता है और उसकी देखभाल करता है। 

  • इरा -  
    इरा दीपा की करीबी मित्र है, जिसके घर दीपा कलकत्ता में रुकती है। वह दीपा के जीवन में एक सहायक और सलाहकार की भूमिका निभाती है, और उसकी भावनात्मक उलझनों को समझने में मदद करती है। 

  • निशीथ -
    निशीथ दीपा का पहला प्रेम है, जिससे वह कलकत्ता में इरा के घर रहते हुए मिलती है। 

यही सच है कहानी का सारांश

मन्नू भंडारी की कहानी "यही सच है" एक युवा महिला, दीपा की मानसिक और भावनात्मक उलझनों को दर्शाती है। कहानी में दीपा दो शहरों, कानपुर और कलकत्ता, के बीच फंसी रहती है, जो उसके जीवन के दो महत्वपूर्ण हिस्सों का प्रतीक है।
दीपा कानपुर में संजय नामक एक विश्वसनीय युवक से प्रेम करती है। संजय दीपा का बेहद ख़्याल रखता है। हमेशा दीपा के कमरे को फूलों से सजाकर रखता है। दीपा नौकरी के लिए कलकत्ता जाने का सोच रही है क्योंकि उसकी दोस्त इरा भी वहीं रहती है। इसपर संजय कहता है कि अगर तुम्हारा नौकरी कलकत्ता में लग जाए तो मैं भी अपना तबादला कलकत्ता ही करवा लूँ, हेड ऑफ़िस में। दीपा को कलकत्ता से इंटरव्यू के लिए कॉल आया। 
अगले ही दिन दीपा कलकत्ता के लिए तैयार होकर कानपुर से कलकत्ता की ओर चल पड़ती है। कलकत्ता पहुँचते ही अपने दोस्त इरा के घर पर रूकती है। शाम को दोनों कॉफ़ी-हॉउस जाती है। अचानक वहाँ उन्हें निशीथ दिखाई देता है। दीपा का तो मानो पैरों तले ज़मीं खिसक गया हो। 
निशीथ - कब आई ?
दीपा - आज सवेरे ही। 
निशीथ - अभी ठहरोगी ? कहाँ ठहरी हो ?
इरा - मेरे घर पर 
दीपा को निशीथ अब पहले जैसा बिल्कुल नहीं लग रहा है। उसने कवियों की तरह बाल बढ़ा लिए हैं। पहले के मुताबिक़ काफ़ी दुबला भी हो गया है निशीथ!...लगता है, जैसे मन में कहीं कोई गहरी पीड़ा छिपाए बैठा है। 
तीन वर्षों बाद निशीथ का यों मिलना! न चाहकर भी जैसे सारा अतीत आँखों के सामने खुल गया है। 
निशीथ अपना सारा काम काज छोड़ दीपा को नौकरी दिलाने के लिए दफ़्तर का चक्कर लगाने लगा। अगले ही दिन दीपा का इंटरव्यू हुआ जिसमें वह अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पायी इसके बावजूद निशीथ कहता है की तुम्हारा चयन होने का संभावना काफ़ी अधिक है। इसी ख़ुशी में एक छोटा सा पार्टी भी निशीथ के तरफ़ से रखा जाता है। 
अब दीपा को ख़्याल आया की उसे कानपुर चला जाना चाहिए फिर जैसे ही सेलेक्शन का कॉल आएगा चली आएगी। दीपा कलकत्ता स्टेशन पर जैसे ही पहुंची तो देखती है कि निशीथ दौरा-दौरा हर डिब्बा में दीपा को खोज रहा था। 
निशीथ - जगह अच्छी मिल गई न ?
दीपा - हाँ 
निशीथ - पानी-वानी तो है ?
दीपा - हाँ, है। 
दीपा मन ही मन निशीथ से प्रेम करने लगती है। ट्रेन खुल गयी पर दीपा को न जाने क्यों एक अलग सा बेचैनी हो रहा था निशीथ से बिछड़ कर।
दीपा घर पहुँचती है। कुछ दिनों बाद उसको निशीथ का पत्र मिलता है जिसमें वह दीपा को काम मिलने का बधाई देता है। 
जैसे ही दीपा दरवाजे की ओर देखती है तो संजय रजनीगंधा का फूल लिए खड़ा होता है जो दीपा को अधिक प्रिय है। रजनीगंधा की महक धीरे-धीरे उसके तन-मन पर छा जाती है। तभी वह अपने भाल पर संजय के अधरों का स्पर्श महसूस करती है और उन्हें लगता है कि यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, वह सब झूठ था, मिथ्या था, भ्रम था...।
और दोनों एक-दूसरे के आलिंगन में बंधे रहते हैं - चुम्बित, प्रति-चुम्बित !  

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(i) ईदगाह 
(ii) बूढ़ी काकी 


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